Tuesday, 8 September 2020

'अशोक चक्र' से जाती ढूंड लेनेवाले लोग कौन है ? 

साथी सुजीत निकालजे और परिवार पर हुए जातिगत हमले के सन्दर्भ में रिपोर्ट




मुंबई स्थित ‘टाटा समाजिक विज्ञान संस्था’ के हमारे साथी तथा पीएचडी स्कॉलर अॅड. सुजीत निकालजे और उनके परिवार पर हुवा कथित जातिगत हमला आज भी भारतीय समाज की उस समस्या को अधोरेखित करता है जिसके दृढ़ीकरण हेतु धार्मिक बहुसंख्यक समाज का प्रतिक्रान्तिवादी तबका पुरे जोर-शोर से अपने समरसतावादी अजेंडे के साथ लगा पडा है. यह हमला भारतीय संविधान के आधार पर स्थापित सरकार के कान के निचे प्रतिक्रिया और शोषणवादी ताकतों द्वारा की गई वह जोरदार आवाज है जिसे समय रहते ही सूना गया होता तो सुजीत जी और उनके परिवार जैसे प्रातिनिधिक शोषण के हज़ारों उदाहरणों को बढ़ने से शायद रोका जा सकता था. खैर, हम मित्र जितना सुजीत जी को जानते है, उनके पास मदत के लिए गया शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति रहा हो जिसे खाली हाथ लौटना पडा हो. मूलतः वे एक अजातशत्रु व्यक्तित्व के धनि और एक अंबेडकरवादी होने के नाते सामाजिक कार्यों में अग्रसर रहते है. खैर, सोशल मीडिया पर प्रकाशित उनके और उनके परिवार पर हुवे जातिगत हमले की  खबर निश्चित तौर पर दुख:द और निषेधर्ह्य है. 


संबंधित घटना पर प्रा. डॉ. सुनील अभिमान अवचार जी का चित्र

गौरतलब है की, कोरोनाकाल की महामारी से बचने हेतु सरकार द्वारा लगाए गए सार्वत्रिक तालाबंदी के चलते सुजीत जी को अन्य छात्रों की भाँती महाराष्ट्र के फलटन जिले के अपने पैतृक गॉव को वापिस  लौटना पड़ा. इसी बिच परिवार समेत अपने खेत में चल रहे काम के पश्चात उन्होंने कुछ देर पास ही के ‘धुमालवाडी’ स्थित एक जलप्रपात को देखने को जाने का मन बनाया. साथ में उनकी पत्नी, भाई और भाभी भी थे. इसी बिच जलप्रपात पर आवारागर्दी करते पड़ोस के ही हणमंतवाड़ी गाँव के कुछ कथित उच्च जातीय असामजिक तत्वों ने सुजीत जी के परिवार की स्त्रियों के साथ छेड़खानी करते हुवे अभद्र भाषा का प्रयोग करना शुरू किया. जिसे रोकने और समझाने की कोशिश भी सुजीत जी और उनके भाई द्वारा की गई. इसके विपरीत उन बदमाशों ने कुछ अन्य साथियों लाठी और कथित हथियारों समेत वापस आकर सुजीत जी और उनके परिवार का रास्ता रोक अनुचित व्यवहार का घोर प्रदर्शन किया. इसी बिच उन असमाजिक तत्वों की नज़र सुजीत जी के गाडी पर लगे ‘अशोक चक्र’ के ऊपर गई जो की केवल भारतीय दलित - बहुजन समाज के अस्मिता चिन्ह ही नहीं अपितु भारतीय संविधानिक गणराज्य का भी मानचिन्ह है, और जो अत्यंत सामान्य रूप से समता के एक प्रतिक के रूप में हमेशा इस्तेमाल किया जाता है. इसी से उन कथित उच्च जातीय असमाजिक तत्वों को सुजीत जी और उनके परिवार की कथित निचली जाती के होने का अनुमान लगाकर   उनपर हमले का ‘बड़ा अवसार’ मिल गया. हमलावर अत्यंत अश्लील भाषा का प्रयोग करते हुवे सुजीत जी की जाती और उनके के सन्दर्भ में घृणास्पद भाषा का प्रयोग कर रहे थे. उन्हें रोकने की कोशिश के चलते सुजीत जी, उनकी पत्नी, उनके भाई तथा भाभी पर जोरदार हमला किया गया. जो निश्चित तौर पर बड़ी जातियों के सामने संविधानिक प्रतिरोध का नकारात्मक नतीजा था. इस हमले में सुजिती जी और उनके परिवार के अन्य सदस्य गंभीर रूप से जखमीं हुए. यह घटना दिनांक 6 सितंबर 2020 को हुई. 


इस घटना के सन्दर्भ में हमारे सामाईक मित्रों द्वारा सामाजिक माध्यमों पर कल प्रकाशित जातिगत हमले की इस खबरों ने फिर से एक बार सरकार और प्रशासन को अपने सामाजिक दाइत्वों के प्रति सोचने को मजबूर कर दिया है. और यह केवल एक घटना नहीं है, जहा किसी व्यक्ति अथवा समाज विशेष को जाती व्यवस्था के कारण शोषण और प्रताड़ना झेलना पड़ी हो. स्वाधीनता के सात दशकों बाद भी भारतीय वास्तविकता में हर दिन दलितों, पिछडो, आदिवासी, अल्पसंख्यांक समाज को शोषण का शिकार होना पड़ता है. महिलाएँ जो की भारतीय व्यवस्था के अत्यंत निचले पायदान पर है, उन्हों तो इस बात की दुगनी मार झेलनी पड़ती है. आकड़ों की बात करे तो, ‘दलितों पर अत्याचार (Atrocities against SCs) की ऐसी घटनाएं हमेशा सामने आती रहती हैं. 'नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो' (NCRB) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में दलितों पर अत्याचार के 42793 मामले दर्ज हुए। 2017 में यह आंकड़ा 43,203 का था, जबकि 2016 में दलितों पर अत्याचार के 40,801 मामले दर्ज किए गए।’ ( स्रोत -www.gaonconnection.com)  वही 'बीबीसी' में प्रकाशित एक खबर की माने तो ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक साल 2014 में दलितों के ख़िलाफ़ 47064 अपराध हुए.यानी औसतन हर घंटे दलितों के ख़िलाफ़ पांच से ज़्यादा (5.3) के साथ अपराध हुए. अपराधों की गंभीरता को देखें तो इस दौरान हर दिन दो दलितों की हत्या हुई और हर दिन औसतन छह दलित महिलाएं (6.17) बलात्कार की शिकार हुईं.’ ब्यूरो के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन में दलितों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न के दर्ज होने वाले अपराधों में लगातार बढ़ोतरी का एक समान ढर्रा दिखता है. साल 2014 में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में इसके पिछले साल के मुक़ाबले 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इससे एक साल पहले 2013 में दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार के मामलों में 2012 के मुक़ाबले 17 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी. अपराध की दर भी बढ़ी है, 2013 में यह 19.6 थी तो 2014 में यह 23.4 तक पहुंच गई' (स्रोत - www.bbc.com). सूप्रसिद्ध ‘दलित दस्तक’ पर प्राकशित आलेख के अनुसार ‘पिछले सं दस वर्षों में सन २००८ से लेकर २०१८ तक इन मामलों में ५१ प्रतिशत कि बढ़त हुई है’ (स्रोत - www.dalitdastak.com). नि:संशय ऐसी भयावह खबरों ने कथित 'अच्छे दिनों' का आम जनता का सपना ध्वस्त कर दिया है. इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? 


भारतीय समाज के सामाजिकीकरण की प्रक्रिया में सदैव अग्रसर रहने वाले दलित, पिछडे, आदिवासी, अल्पसंख्यांक तथा सभी शोषित लिंगवर्ग के समाज ऐसी घटानाओं का घोर धिक्कार करता है. साथ ही सरकार से अनुरोध करता है की, जल्द से ऐसी घटानाओं को रोक लगाने के लिए गंभीरतापूर्वक कदम उठाया जाय, जिससे संविधानिक समाज निर्मिती की प्रक्रिया को बढ़ावा मिले और किसी भी सुजीत निकालजे जैसे वकील और कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता को लोकहित के काम छोड़ न्याय के लिए भटकना ना पड़े.


प्रकाशित - thecolourboard.com और shunyakal.com

Sunday, 14 June 2020

डॉ. मनीष गवई : यंग इंडिया के हीरो

 

            तब उम्र में मै इतना छोटा था कि मुझे यह बात भी याद नहीं की वह कौनसा साल रहा होगा. सही में समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. लेकिन उस दिन की वह घटना मेरे दिमाग में आज भी ताज़ी है. जो मुझे सामाजिक परिवर्तन की संभावनाओं के पक्ष में एहसास दिलाती रहती हैं. किसानों की आत्महत्या और आकाल से सदैव पीड़ित महाराष्ट्र के विदर्भ प्रान्त के अमरावती जिले के मेरे छोटेसे गाँव रिद्धपुर में उस दिन 'मै अंबेडकर बोल रहा हूँ' इस 'एक पात्र नाट्य प्रयोग' का आयोजन दलित बस्ती में प्रतिष्ठापित बाबासाहब के पुतले के प्रांगण में हो रहा था. हमारे बड़े भाइयों ने कही से लाइट की व्यवस्था भी कर दी. कुछ लोगो ने मिलकर दूसरों के घरों से आवश्यक सामान भी जुटा लिया जिसमें लाउडस्पीकर के साथ एक-दो खुर्सियाँ भी शामिल थी. नाट्य प्रयोग की घडी समीप रही थी. दलित बस्ती के हम सभी लोग आयोजन स्थल पर जुट गए. पास की बकरियों की 'में-में' की बिच हम बच्चो को भी चुप रहने को बोला गया. हम तो चुप रहे लेकिन बकरियां कहा चुप बैठने वाली थी ! इसी बिच गाँव के किसी कार्यकर्ता ने कार्यक्रम शुरू होने कि घोषणा की. सभी उत्सुक थे. तभी अँधेरे से बाबासाहब जैसे सूट-बूट पहना एक आदमी आकर स्टेज पर खड़ा हो कर बोलने लगा 'मैं आंबेडकर बोल रहा हूँ'. हम देखते ही रह गए. वह आवाज आज भी मेरे मन में अपना एक ख़ास ठिकाना बनाएँ हुए है. शायद जो आज भी मुझे बताती है अंबेडकर ज़िंदा है और वह कभी मरा नहीं करते. इस घटना को बहुत दिन बीत गए थे. बाद में मुझे पता चला की वह व्यक्ति दुसरे कोई नहीं बल्कि अमरावती के सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. मनीष गवई है.  

            दिन बीत रहे थे. बारहवीं कक्षा के बाद मैंने शिक्षा में डिप्लोमा करने का निश्चित किया. पढ़ना शुरू हो गया था. तभी किसी ने पास ही के शहर में एक वक्तृत्व स्पर्धा होने की न्यूज बताई. मैंने उसमें भाग लेने का निश्चय किया. इसके पहले मुझे शहरों में होने वाले इस तरह की कॉम्पिटेशन्स का कोई जादा अनुभाव नहीं था. स्पर्धा के दिन मैं शहर गया. वहा भी मेरी पहचान का कोई नहीं था. वह शुरुवात के दिन थे. तभी एक व्यक्ति शायद जिसे मैं जानता था वह नजर आए. दिमाग पर जोर देकर सोचने के बाद भी समझ नाही रहा था की मैंने पहले इन्हें देखा भी है या नही? मैं उनके पास गया और पूछा क्या आप डॉ. मनीष गवई है जो कुछ साल पहले 'मै डॉ. अंबेडकर बोल रहा हूँ' के प्रयोग किया करते थे ? वे मुस्कुराएँ. फिर बातों और विचारों का कारवाँ ऐसा चला की जो आज तक चल रहा है.

            भारत सरकार के राष्ट्रीय युवा पुरस्करार्थी तथा आंतरराष्ट्रिय सार्क संघटना के युवादूत रहने वाले डॉ. मनीष गवई युवा विकास और सामाजिक भागीदारी के क्षेत्र में हमेशा से ही कार्यरत रहे हैं जो कठिन काल में भी युवाओं को आत्मविश्वास की कुंजी बताते है. मुख्यतः ग्रामीण भारत में जहा संसाधनों की कमी मुख्य मुद्दा बनकर उभरती हैं और महाराष्ट्र के विदर्भ जैसे प्रान्तों में तो हालात किसानों की आत्महत्या, रोजगार की कमी, अशिक्षा जैसे ढेरों मुद्दों से और भी कठिन हो जाता हो वहा मनीष जी जैसे लोग केवल अपने व्याख्यान ही नहीं बल्कि बुनियादी क्रियाकलापों से परिवर्तन का कार्य करते है. मसलन, आज-कल जहा कोरोना की महामारी से उत्पन्न हुवे संकटों के कारण युवा निराशा की खाई में जा रहे है वही मनीष जी उनका हौसला बांधने का कार्य कर रहे है. जमीनी स्तर से लेकर सरकार के साथ मिलकर निति निर्धारण के क्षेत्र में भी वे हमेशा कार्यरत रहे है. भारत समेत आशिया के अन्य देश भी जहा विकासंशिलता की राह पर है वही उनके साथ मिलकर काम करना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. इसी बात को ध्यान में रखते हुवे मनीष जी ने नेपाल, भूटान, थायलंड, चीन जैसे अन्य देशों के युवा विकास के क्षेत्र में भी भागीदारी देने का कार्य कर राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्षम युवाओं को बुनियाद के रूप में प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया.

            केन्द्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय में कार्यरत मनीष जी आजकल देश की राजधानी दिल्ली में रहते है. लेकिन आज भी उनका मन ग्रामीण युवा, विकास, परिवर्तन और उसके लिए पर्याप्त प्रबोधन क्षेत्र पर टिका हुवा है. अमरावती विश्वविद्यालय के राज्यपाल नामित सीनेट सदस्य होने के नाते उन्होंने अनेक छात्र समस्याओं पर केवल बात की बल्कि जरुरत पड़ने पर आंदोलन का रास्ता भी चुना. इसी कारण आज का ग्रामीण छात्र उनके साथ बेहिजक बात कर सकते है और अपनी तखलिबे उन्हें बता सकते है.

            आज जहाँ पुरे विश्व में 'कोविड १९' के महामारी से लोग अपने घरों में बंद है वही मनीष जी जैसे लोग मेहनतकश मजदूरों को उनके घरों तक पहुचाने की व्यवस्था में लगे हुवे है. इतना ही नहीं अपनी 'विशाखा' सामाजिक संस्था के माध्यम से 'रियल कोरोना वारियर्स' को सन्मानित कर उनका हौसला बंधाने में भी जुटे हुवे है. शायद इसी लिए केवल महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देशा के अनेक युवा उन्हें आज एक आदर्श के रूप में देखते है. एक दिन बातों-बातों में मैंने भी उनसे पूछ लिया "सर, युवा आपसे प्रेरणा लेते है लेकिन आपको प्रेरणा कहा से मिलती है ?" वे मुस्कुराए और बोले, "जिन्होंने संविधान लिखा था..."

            मनीष जी जैसे कई लोग आज सामाजिक विकास और परिवर्तन के क्षेत्र में कार्यरत है लेकिन जरुरत है की हम भी उनके साथ खड़े रहे.