Monday 29 October 2018

प्रधानमंत्री जी को चिट्ठी लिखने की अपरिहार्यता का परिप्रेक्ष्य
सरकार द्वारा प्रस्तावित 'द ट्रांस पर्सन्स (सुरक्षा एव अधिकार) बिल ‘2016' के विरोध में उठती आवाज़



समकालीन भारतीय परीपेक्ष्य मे सामाजिक मानसपटल पर गहराते धर्म, वर्ण, जाति, वर्ग, लिंगभेद के संकट के बीच राज्यद्वारा प्रेरित तथा प्रस्थापित हिंसा ने व्यवस्था को पुनः कटघरे मे लाकर खड़ा कर दिया है. भारतीय संविधान ने समाज के सभी घटकों को समानता पूर्वक न्याय के प्रति आश्वासित किया है. संविधान के उद्देशिका मे वर्णित समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए भारतीय गणराज्य प्रतिबद्ध है. यद्यपि भारतीय स्वाधीनता के दशकों बाद भी समाज इस मूल्यों के क्रियान्वयन हेतु तृषित है. समकालीन बढ़ते सर्वांगीण भेदभाव तथा शोषण के बीच ही कई ऐसे हाशिये के तबके व्यवस्था के तथाकथित कल्याणकारी राज्य के दायरे से कोसों दूर रहते है. चुनावकालीन प्रस्थापित नेत्रत्व के उपभोगवादी मानसिकता से अपरिहार्य जुमलेबाजी के सिवा इस उपेक्षित तबके के हाथ शायद ही कुछ आता हो. राज्य कई बार ऐसे उपेक्षित समाज तत्वों के कल्याण के लिए कानून बनाकर परिवर्तन लाने का प्रयास करती है. मात्र, यही कानून जब उस शोषित तबके के गले का फांस बन जाए तो सामाजिक हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हो जाता है. खैर, स्रोत बताते हैं कि आने वाले शीतकालीन संसद सत्र में सरकार 'द ट्रांस पर्सन्स (सुरक्षा एव अधिकार) बिल 2016' को मान्यता देने वाली है. मात्र, मूलभूत त्रुटियाँ तथा उनके ट्रांस जेंडर समाज पर होने वाले विपरीत परिणामों को हेतुगत ढंग से नजरअंदाज कर सरकार इस बिल को लागु कराने मे आतुर प्रतीत होती है. इस बिल को ट्रांस जेंडर समुदाय के साथ ही समाज के विविध समुदायों द्वारा पुरजोर तरीके से विरोध किया जा रहा है. इन सब विरोध प्रदर्शनों के बीच सरकार इस समुदाय की आवाज सुनने के पक्ष में नजर नहीं आती दिख रही है.
भारत सरकार को इस समुदाय की अत्यावश्यक जरूरतें तथा सम्मान और समतापूर्वक जीवन जीने हेतु संपूर्ण ट्रांस समुदाय के लिए घातक सिद्ध होने वाले इस बिल में शामिल कुछ अप्रासंगिक तत्वों को हटाकर बुनियादी सुधारों की बात करनी चाहिए. सदैव ही स्वाभाविक शोषण का शिकार होता आया यह समुदाय न्याय से और कोसों दूर चला जायेगा. इसी बीच इस विषय पर कार्यरत और परिवर्तन की बात करने वाले मुंबई स्थित 'टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था' के कुछ छात्रों ने 'टिस क्युयर कलेक्टिव्ह' के माध्यम से एक मुहीम छेड़ी है, जो कि देश में  वर्षों से शोषित ट्रांस जेन्डर समुदाय के हित में आवाज को बुलंद करने का कार्य कर रहे है. समाज का हर एक तबका हज़ारों की संख्या मे आज इन विद्यार्थियों के जनआंदोलन में उनके पक्ष में खड़े हुए है. इस आंदोलन में किसी भी प्रकार के नारे व रेलियों नहीं निकाली गयी, इसके बजाय ट्रांस जेंडर के इस मसले पर पुनर्विचार कर सरकार से सुधार का आग्रह करने के लिए एक शांतिपूर्ण ‘लेटर कैंपेन’ चलाया गया जिसके तहत सभी से प्रधानमंत्री जी को केवल एक चिट्ठी लिखने की अपील कर ट्रांस समुदाय के समता के पक्ष मे खड़ा रहने की अपील इस आंदोलन के माध्यम से की गई. अर्थात इस आंदोलन का आगाज़ टाटा इंस्टीट्यूट के कैंपस से होकर मुंबई के चौराहों तक पहुंचा. भले ही, आज चिट्ठी पत्री का जमाना कम हो गया हो लेकिन गणतंत्रात्मक व्यवस्था से चलने वाले हमारे देश में लिखी गई ये हज़ारों चिट्ठीयाँ शायद इस समुदाय की आवाज बुलंद कर पाने में सफल साबित हो सके. इस मुहीम में सहभागी छात्रों ने इस 'लेटर कैंपेन' को एक प्रकार से सरकार को संकेत देने वाला बता कर 'ट्रांस जेंडर' समुदाय के साथ होने का आश्वासन दिया.
आखिरकार सरकार द्वारा प्रस्तावित 'द ट्रांस पर्सन्स (सुरक्षा एव अधिकार) बिल 2016' का विरोध करने की ट्रान्स जेंडर समाज को जरुरत क्यों पड़ी? खैर, सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री थावरचंद गहलोत ने 2 अगस्त 2016 को लोकसभा में 'ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का सांरक्षण) बिल, 2016' पेश किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने भी 19 जुलाई 2016 इस विधेयक को मंजूरी दे दी है. वैसे ऊपरी तौर पर देखा जाए तो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की बात करने वाले इस बिल के तत्व आख़िरकार इस वर्ग के लिए ही घातक और समता सिद्धांत को नकारने वाले साबित होते है. यह बिल ट्रांस जेंडर व्यक्तियों की परिभाषा ऐसे व्यक्ति के रूप में करता है, ‘जो की पूरी तरह ना ही महिला है और ना ही पुरुष, बल्कि दोनो का संयोजन है. ऐसे व्यक्तियों का जन्म के समय का लिंग नियत लिंग से मेल नहीं खाता है’, अगर  सरकार की इस व्याख्या को हम प्रमाण मान भी ले तो, भारतीय संविधान द्वारा दिए गए सभी को बराबरी और समानता के अधिकारों का लाभ ट्रांस जेंडर व्यक्तियों को किसी भी रूप में नहीं मिलता है, इस समुदाय को न्याय दिलाने के उद्देश्य से 'राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (एनएएलएसए)' के साथ मिलकर कुछ लोगों तथा संघठनो ने देशभर में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ होने वाली बर्बरता, शोषण और असमानता के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल की थी, जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय ने फेसला सुनाया था कि ‘भारत के प्रत्येक नागरिक को अपना लिंग निश्चित करने का अधिकार है’. सही मायने में देखा जाए तो देश के स्वाधीनता के 70 सालो बाद भी समाज में ही नहीं बल्कि अपने घर में भी असमानता और शोषण व हिंसा का सामना करना पड़ता है.
अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटकर देखे तो भारत के प्रगतिशील आंदोलनों में इस विषय पर सार्थक चर्चा होती आयी है. महाराष्ट्र के महान समाजकर्मी महर्षी धोंडो केशव कर्वे जी के सुपुत्र रघुनाथ कर्वे जी ने लैंगिक शिक्षा के प्रसार हेतू ‘समाजस्वास्थ्य’ नामक एक पत्रिका का संपादन किया था, जिसकी वजह से सन 1934 के फरवरी में उनको उनके पाठकों द्वारा पूछे गये प्रश्न क्रमांक 3, 4, और 12 के उत्तर देने के आरोप में गिरफ्तार भी हुए, जो प्रश्न पाठकों द्वारा उनको पूछे गये थे वो सब समलैंगिकता से सम्बंधित थे, जिसको अपीलकर्ता ने विकृत तथा अश्लीलता फैलाने वाला कहा था. कर्वेजी के इस केस को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने न्यायालय में लड़ने का निश्चय किया. बाबासाहब अनुसार, ‘समलिंगी संबंध पूर्णतः नैसर्गिक है, जिसमें कुछ भी गैर नहीं है और बिना किसी के अधिकारों का हनन किए, जिसको जिस प्रकार से अपना जीवन जीने में आनंद आता हो उसे प्राप्त करना हर एक नागरिक का अधिकार है.’ इस संदर्भ में बाबासाहब हॅवलॉक एलिस जैसे जानकारों का संदर्भ देते है. बाबासाहब के यह विचार सदैव प्रासंगिक रहे है. आज भी ‘ट्रान्स जेंडर’ समुदाय को पारिवारिक और सामाजिक शोषण का सामना करना पड़ता है, यहाँ तक कि आज भी यह समुदाय कानूनी पहचान पाने की जदोजहद में लगा हुआ है. किसी भी तरह की सुरक्षा न होने के कारण सभी प्रकार के नागरीक  अधिकारों से वंचित रहने को मजबूर है. इसी कारण, समता के पक्ष में दाखिल इस जनहित याचिका की सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने यह मंजूर किया कि, 'भारत के हर एक नागरिक को 'अपना जेंडर' निर्धारित करनेका हक़ है.' इसी बीच अदालत ने सदियों से होते आ रहे सामाजिक शोषण को ख़त्म करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुवे ट्रांस जेंडर व्यक्तियों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए शिक्षा तथा रोजगार में आरक्षण का प्रावधान करने के लिए सरकार को निर्देश भी दिया है, जिसमें इस वर्ग के संवेधानिक हितों को मान्यता देते हुए सरकार को अपनी जवबदेही निभाने की सलाह दी है.
सर्वोच्च अदालत ने अप्रैल 2014 में तथाकथित सामान्य पुरुष और नारी से भिन्न लैंगिकता वाले व्यक्तियों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान दी थी. ‘राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण’ की ही अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था. न्यायालय के इस फैसले के कारण ही हर तृतीय पंथीय व्यक्ति को जन्म प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पासपोर्ट तथा ड्राइविंग लाइसेंस में 'थर्ड जेंडर' के तौर पर पहचान प्राप्त करनेका अधिकार मिला. इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि, उन्हें एक–दूसरे से शादी करने और विभक्त होने का भी अधिकार मिला. उत्तराधिकार कानून के तहत वारिस होने एवं वारिस लेने के उनके अधिकार के साथ ही अन्य अधिकार भी प्राप्त हुए.
इस विषय में कानून बनाकर सही मायनों में इसे घटनात्म स्वरुप देने की ओर व ट्रांस जेंडर समुदाय के हित की रक्षा की दिशा में दिसंबर 2014 में राज्यसभा सांसद तिरुची शिवा ने एक प्रगतिशील निजी विधेयक प्रस्तावित किया गया जो कि राज्य सभा ने पारित किया.  राज्य सभा द्वारा पारित इस विधेयक को दरकिनार कर सरकार द्वारा 2015 में नया मसौदा लाया गया. आगे इन दोनों विधेयकों से भिन्न विधेयक लोकसभा में 2015 में पेश किया गया, जिसमें राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण' द्वारा दाखिल फैसला और 2014 के उपरोक्त विधेयक के कई महत्वपूर्ण बिंदु सिरे से नकारे गए. इस विधेयक को देशभर में भारी विरोध का सामना करना पड़ा जिसके चलते इस विधेयक पर 'विचार करने के लिए' केंद्र सरकारने एक संसदीय स्थाई समिति का गठन किया है. अगर 'टिस क्युअर कलेक्टिव्ह' के अधिकृत पर्चे की माने तो, ‘विभिन्न माध्यमों से हाल ही में मिली सूचना से यह पता चलता है कि इस समिति की सारी प्रगतिशील सूचनावों को नजरअंदाज कर सरकार दोबारा अपना वही 2016 का पुराना विधेयक 25 दिसंबर से शुरू होने वाले इस शीतकालीन सत्र में लाना चाहती है'. खैर, सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक व्यक्ति को अपना लिंग निर्धारित करने का अधिकार दिया है. इस विधेयक के पारित होते ही 'जिला स्क्रीनिंग कमिटी' के पास जाकर शारीरिक जांच करवानी पड़ेगी. इस कमिटी की मान्यता के बाद ही आपको वैधानिक 'ट्रांस जेंडर' कहा जाएगा. मूलतः सरकार इस मुद्दे के माध्यम से व्यक्ति के 'निजता के अधिकार' को अमान्य कर सर्वोच्य न्यायालय कि भी अवमानना कर रही है. हाल ही में निजता के अधिकार को सर्वोच्च अदालत के एक खण्डपीठ ने इसे 'जीने के अधिकारो'में समाविष्ट किया है.
सभी भारतीय नागरिकों को रोजगार का अधिकार प्राप्त है. लेकिन दूसरी और आज भी समाज का एक ऐसा तबका रोजगार से वंचित होकर हाशिये का जीवन जीने के लिए विवश है. इस तबके में सदियों से सामाजिक असमानता का शिकार झेलते आये दलितों से लेकर घुमंतू तथा अर्ध घुमंतू समाज और 'ट्रांस जेंडर' समुदाय के लोग शामिल है. जैसे-तैसे अपनी आजीविका कमाने वाले ये लोग मानवाधिकारों से सदैव ही वंचित रहे है. 'ट्रांस जेंडर' की बात करें तो सातत्यपूर्ण सामाजिक बहिष्कार के चलते यह लोग भीख मांगने पर मजबूर है. यह विधेयक 'भीख मांगने' को अपराध घोषित करता है और इस तरह की कार्यविधि लिप्त पाए गये व्यक्ति  में 6 महीने से लेकर 2 साल तक कारावास तथा जुर्माने का प्रावधान भी यह विधेयक करता है जिसके कारण पुलिस और राज्य द्वारा ट्रांस समुदाय के प्रति की जाने वाली हिंसा और भी बढ़ जायेगी. सर्वोच्य न्यायालय तथा 2014 के विधेयक द्वारा दिए गये आरक्षण के अधिकार को भी यह विधेयक खारिज करता है. इसके अलावा इसमें सामाजिक असमानता के आधार पर रोजगार एवं शिक्षा के माध्यम से मिलने वाले सुरक्षा के अधिकार के अधिकार की भी अनदेखी की गयी है.
ट्रान्स जेंडर समुदाय के सर्वांगीण विकास के लिए मिलने वाली स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं की दिशा में इस बिल में केवल कुछ मुद्दों पर ही बात की गयी है, जो की अपर्याप्त है. 2015  की भांति इस समुदाय ने अभी निशुल्क लिंग परिवर्तन करने का प्रावधान करने व अस्पताल में इनके लिए अलग कक्ष और ट्रांस जेंडर समुदाय पर उपचार करते समय चिकित्सकों द्वारा बरती जाने वाली लापरवाही को मानवाधिकार का हनन मानते हुए चिकित्सकों पर सख्त कारवाही करने  की मांग इस समुदाय ने की है. ट्रांस जेंडर समुदाय निरंतर ही शारीरिक लैंगिक हिंसा का शिकार होता आया है, लैंगिक शोषण के संदर्भ में पारित तमाम कानूनों मे इस वर्ग से जुड़े गंभीर मुद्दों के निराकरण के लिए किसी भी प्रकार की बात नहीं की गयी है. इसलिए उन सभी क़ानूनों में सुधार या नए कानून का निर्माण इस समुदाय के पक्ष में किया जाना चाहिए.
मूलतः भारतीय संविधान सामजिक समानता तथा न्याय के किर्यान्वयन का आग्रह करता है. सरकार भी ऐसे अल्पसंख्यक तबकों के हितों तथा नागरीक अधिकारों की रक्षा के दावे करती रहती है. समकालीन परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए उठाये जाने वाले कदम सर्वत्र शोषण की खाई में फिर से धकेलने वाले मालूम पड़ते है. आज सही मायनों में मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित करने के लिए लड़ते हुए अपनी जान न्योछावर कर देने वाले संघर्षकर्तओं के सपनों के संवेधानिक समाज की स्थापना के लिए एक बार फिर से समाज के वंचित तबके को साथ लेकर समता के पक्ष में खड़े होने की जरुरत है.

- पूर्वप्रकाशित
राउंड टेबल इंडिया - २५ डिसेंबर २०१७


Saturday 13 October 2018

ऐतिहासिक येवले परिषद आणि 
बाबासाहेबांच्या क्रांती घोषणेचा समकालीन अन्वयार्थ



येवले परिषदेस संबोधित करतांना डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर


भारतीय दलित, शोषित, वंचितांचे मुक्ती प्रेरक डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या येवले येथील परिषदेतील क्रांती घोषणेला आज दिनांक १३ ऑक्टोंबर २०१८ रोजी ८३ वर्ष पूर्ण होत आहेत. बाबासाहेबांची “मी हिंदू म्हणून जन्मास आलो तरीही हिंदू म्हणून मारणार नाही’ ही ऐतिहासिक घोषणा पुर्वाश्रमीच्या भारतीय अस्पुश्यांना मानवतेचा मार्गदीप ठरली आणि समानतेच्या प्रकाशात त्यांचे जीवन न्हाऊन निघाले. बाबासाहेबांची ही घोषणा खऱ्या अर्थाने भारतीय जातिवर्गलिंगभेदअंतक क्रांतीची मुहूर्तमेढ म्हटली पाहिजे. या परिषदेच्या माध्यमातून निर्माण झालेल्या जाणिवा दलितांना मानसिक दृष्ट्या शोषनाधिष्टीत धर्माच्या वर्चस्वातून मुक्त करण्यास सहायक ठरल्या.


मुळात, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी आपले अवघे आयुष्य कोट्यवधी दलितांना सामाजिक न्याय मिळवून देण्यासाठी वाहून दिले. सर्वार्थाने उपेक्षित समाजाच्या प्रगतीसाठी ते दिवसरात्र झटत होते. देशातील कथित सवर्ण समाजाच्या मनाला कधी तरी पाझर फुटेल आणि आपणासारखेच इतर ही सर्व सामान आहेत हा भाव त्यांच्यात जागृत होईल हा आशावाद ते बाळगून होतो. धर्मांतर्गत सुधारणांच्या सर्व पातळीवरील प्रयत्नांना अपयश आल्यानंतर मात्र धार्मिक, सामाजिक हक्कांसाठीचे ‘सत्याग्रह’ सोडत ज्या प्रस्थापीत धर्म व्यवस्थेत अस्पृश्यांना पशूंपेक्षाही हीन वागणूक दिली जाते त्या व्यवस्थेचा त्यागच त्यांच्या मुक्तीचे माध्यम होईल हा विचार त्यांच्या मनात निर्माण झाला. हिंदू धर्म आणि तत्वज्ञानावर त्यांनी सातत्याने विवेकाधिष्टित टिका केली मात्र एक माणूस म्हणून त्यांचे संपूर्ण समाजावर निखळ प्रेम होते. मात्र, आपल्या समाजाला मिळत असलेली हीनतेची वागणूक त्यांचे मन विषन्न करीत असे.


सामाजिक न्यायाच्या प्रतिष्ठापनेसाठी त्यांनी हिंदू धर्मातील विषमतावादी तत्वज्ञान आणि त्याच्या आचारपद्धती विरुद्ध व्यापक लढा देण्याचा सर्वांगीण प्रयत्न सातत्याने केला होता. त्याच मालिकेत पूर्वाश्रमीच्या अस्पृश्यांना सार्वजनिक पाणवठे व मंदिरे यात प्रवेश मिळाला पाहिजे यासाठीचा व्यापक संघर्ष आपण लक्षात घ्यायला हवा. त्यातून ४ सप्टेंबर १९२७ रोजी ‘समाज समता संघा’ची स्थापना, १३ नोव्हेबंर १९२७ रोजी अमरावती येथे अंबादेवी मंदीर सत्याग्रह, २५ डिसेंबर १९२७ साली महाड येथील सत्याग्रह व मनुस्मृती दहन, २९ जून १९२८ साली 'समता' पाक्षिकाचा आरंभ, ३ मार्च १९३० रोजी नाशिक येथे काळाराम मंदिर प्रवेश, २४ नोव्हेबंर १९३० साली 'जनता' साप्ताहिकाची सुरुवात, १४ ऑगस्ट १९३१ रोजी मुबंई येथे महात्मा गांधी समवेत पहिली भेट नंतर २५ सप्टेंबर १९३२ रोजी ऐतिहासिक पुणे करार आदीं महत्वपूर्ण निवडक घटनांचा समावेश येवले परिषदेच्या पार्श्वभूमीवर करता येईल. मात्र, सवर्ण हिंदू समाजाच्या हृदय परिवर्तनाचे हे सारे प्रयोग होत असतांनाच त्यांना मात्र हा अस्पृश्य समाज अजूनही कुत्र्या मांजरापेक्षाही खालचा वाटे. या पार्श्वभूमीवर विदर्भातील तत्कालीन दलित नेते व आंबेडकरांचे श्रद्धास्थान गुरुवर्य किसान फागूजी बनसोड यांच्या 'प्रदीप' या काव्यसंग्रहातील खालील ओळी महत्वाच्या वाटतात.


“हरी मज पशु कर वा पक्षी कर,
परी करू नको महार !
पक्षी योनी राघो केला,
तरी हिंदू शिकविती.
महार केलिया विटाळ म्हणुनी,
शिक्षण बंदी करती…”


दरम्यान, नाशिकच्या काळाराम मंदिर प्रवेश चळवळीच्या काळातच बाबासाहेब ‘गोलमेज परिषदे’त गुंतून गेले होते. या परिषदेतीतून अस्पृश्यासाठी मिळेल ते खेचून आणण्याचे शर्थीचे प्रयत्न त्यांची चालवले होते. त्याच वेळी मंदिर प्रवेशाचा लढा ही त्यांनी त्यांच्या सहकारऱ्यांमार्फत गेली पाच वर्ष लावून धरला होता. मात्र, अजूनही अस्पृश्य समाजाला माणूस म्हणून मानायला नकार देणारे सनातनी मंदिर प्रवेशाच्या विरुद्धच होते. ज्या धर्मात पशूंना मंदिरात प्रवेश करण्याची मुभा आहे मात्र सर्वार्थाने सामान असलेल्या मानवास तेथे बंदी घालण्याच्या दांभिक प्रवृत्ती विरुद्ध बाबासाहेबांनी “ज्या धर्मात आम्हाला कुत्र्याचीही किंमत नाही त्या धर्मात आता आपण राहायचे नाही” असा निर्धार करून धर्मांतराचा विचार आपल्या कार्यकर्त्यांना बोलून दाखवण्यास सुरुवात केली. आपल्या समाजाचे या विषयी काय मत आहे याविषयीही बाबासाहेबांना उत्सुकता होती. समाजही आता जागृत व्हायला लागला होता. अर्थातच त्यासाठी बाबासाहेब आणि त्यांच्या पूर्वसूरींचे प्रयत्न कारणीभूत होते. मात्र, सातत्याने नागावल्या गेलेल्या शोषित समाजासाठी नवा समतामूलक मानव धर्म पर्याय म्हणून त्यांना हवा होता. हा धर्म अर्थातच बुद्धाच्या महान धम्माच्या रुपाने त्यांनी त्यांच्या समाजाला पुढे दिला.


अस्पृश्यतेच्या प्रश्नावर व्यापक चर्चा करण्यासाठी आणि समाजासमोर समतेच्या आग्रहाचा निर्धार व्यक्त करण्यासाठी बाबासाहेबांच्या नेतृत्वात दिनांक १३ ऑक्टोबर १९३५ रोजी येवले मुक्कामी एक परिषद आयोजित करण्यात आली. या परिषदेसाठी देशाच्या कानाकोपऱ्यातून सुमारे १०,००० पेक्षा जास्त लोक उपस्थित राहिले होते. बाबासाहेबांविषयीची कृतार्थता आणि मुक्तीची चाड असलेला हा समाज नव्या दिशेने मार्गक्रमण करण्यास सिद्ध होऊ बघत होता. परिषदेचे स्वागताध्यक्ष अमृत धोंडिबा रणखांबे हे कार्याच्या यशस्वीतेसाठी अविरत झटत होते. अपूर्व उत्साहात परिषदेस सुरुवात झाली.


यावेळी भरगच्च सभामंडपात बाबासाहेबांनी अत्यंत प्रभावी अशा शब्दात विषमतावादी धर्म आणि त्याच्या तत्वज्ञानाची चिकित्सा करत आपल्या समाजाच्या मुक्तीचा मार्ग काय असू शकतो यावर व्यापक विचार व्यक्त केले. त्यावेळी त्यांनी, “मागच्या पाच वर्षापासून आपण सर्वानी मोठ्या कष्टाने काळाराम मंदिराची चळवळ चालविली. पैसा आणि वेळ खर्ची घालून चालविलेला हा पाच वर्षाचा झगडा व्यर्थ गेला. हिंदूच्या पाषाणहृदयाला पाझर येणे अशक्यप्राय आहे, हे आता पक्के झाले आहे. काळारामाच्या निमित्ताने माणूसकीचे अधिकार मिळविण्यासाठी चालविलेली ही चळवळ निष्फळ ठरली. अशा या निर्दय व अमानुष धर्मापासून फारकत घेण्याची वेळ येऊन ठेपली आहे. आपण हिंदू आहोत केवळ याच कारणास्तव आपल्यावर हे अस्पृश्यत्व लादण्यात आले आहे. तेच जर आपण दुसऱ्या धर्माचे असतो तर हिंदू आपल्यावर अस्पृश्यत्व लादू शकले असते काय ? हा धर्म सोडून एखाद्या दुसऱ्या धर्मात जावे असे तुम्हाला वाटत नाही काय ?” असा प्रश्न उपस्थितांना केला. त्यांच्या या प्रश्नाला टाळ्यांच्या गजरात श्रोत्यांनी सकारात्मक प्रतिसाद दिला. याच भाषणात पुढे बाबासाहेबांनी “मी अस्पृश्य जातीत जन्माला आलो ते माझ्या हाती नव्हते. हिंदू म्हणून मी जन्माला आलो, पण हिंदू म्हणून मरणार नाही.” ही ऐतिहासिक घोषणा करून शोषणवादी धर्म त्याग करण्याचा मनोदय व्यक्त केले. अर्थातच त्यांची ही घोषणा म्हणजे येथील संतांनी व्यवस्थेवर घाव होते. लोकांच्या जीवनात रक्तविहीन मार्गाने होऊ घातलेल्या क्रांतीचा तो आगाज होता.


ही ‘भीमगर्जना’ ऐकून अस्पृश्य समाजामध्ये उत्साहाला उधाण आले. पिढ्यांपिढ्यांची गुलामगिरी क्षणात मानाच्या पातळीवरून मुक्त होऊ बघत होती. धर्मांतराच्या या घोषणेने एक निर्णयात्मक संदेश समाजापर्यंत पोहचला होता. भाषणाच्या शेवटच्या टप्प्यात बाबासाहेबांनी आता मंदिर प्रवेशाच्या चळवळी थांबवण्यास आपल्या कार्यकर्त्यांना सांगितले. ही नव्याला युगाची सुरुवात होती. संमिश्र अशा प्रतिक्रिया या परिषदेच्या आणि बाबासाहेबांच्या भीमगर्जनेच्या निमिताने समाजाच्या प्रत्येक जाती-वर्गातून व्यक्त झाल्या. बाबासाहेबांचा हा निर्धार १ ऑक्टोंबर १९५६ रोजी नागपूर च्या आंतरराष्ट्रीय बौद्ध परिषदेच्या निमिताने दीक्षाभूमीच्या पावन परिसरात नागपूर मुकाम्मी फलद्रुप झाला.


   अस्पृश्यतेचे चटके सोसत मानवी हक्क नाकारल्या गेलेल्या समाजाला बाबासाहेबांच्या धर्मांतर चळवळीतून आत्मोन्नतीचा मार्ग दाखविला. त्यातूनच समकालीन विकास आणि सामाजिक परिवर्तनाची बीजे रोवल्या गेली. मुळात, भारतीय समाज धर्म विहीन अवस्थेत जगण्यास अद्यापही अवधी असल्याने विवेकवादी समतामूलक असा बुद्धांचा धम्म बाबासाहबांनी आपल्या या समाजाला दिला. त्यातूनच प्रज्ञा, शील आणि करुणेचा मूलमंत्र घेऊन समकालीन समतेचा हा संगर शांततामय मार्गाने दलित समाज लढतांना दिसून येतो. हे सारे संचित बाबासाहेबांचे आहे.    

पूर्वप्रकाशित -

१) ‘द वऱ्हाड’ - दिनांक १४ ऑक्टोंबर २०१८

२) ‘अक्षरनामा’ - दिनांक १५ ऑक्टोंबर २०१८
सामाजिक परिवर्तनाची बीजे रोवणारी डॉ. आंबेडकरांची क्रांतीघोषणा!




Friday 12 October 2018

‘हॅशटॅग’ मोहिमांच्या फलश्रुतीसाठी...
कथित धर्म आणि त्याच्या अविवेकी तत्वज्ञानाचा अव्हेर हीच समतेची सुरुवात असेल



भारतीय परीपेक्षातील समकालीन वास्तवाच्या संदर्भात तथाकथित धर्म आणि त्याच्या तत्त्वज्ञानाने  आपला गहनतम प्रभाव प्रस्थापित केला आहे. अर्थात हजारो वर्षांच्या कालखंडात धर्म आणि त्याअनुषंगाने निर्माण झालेली आचार प्रणाली विवेकाधिष्टित समाजस्वास्थ्यास आत्यंतिक हानिकारक ठरली असून नवं समाज निर्मितीसही सर्वार्थाने मारक ठरली आहे. भारतीय समाज व्यवस्थेत महिला आणि इतर शोषित वंचित घटक नागवल्या गेले आणि धर्म व्यवस्थेने त्यास प्रदान केलेल्या तत्वज्ञानात्मक अधिष्ठनामुळे अवैध - अमानवी परंपरा आणि आचारप्रणाली निर्माण होण्यास आणि त्या टिकण्यास वाव मिळाला.

आज भारतीय चित्रपट आणि मीडिया मध्ये सुरु असलेल्या 'मी टू' मोहिमेकडे बघत असतांनाही स्त्री अत्याचाराच्या कारणपरंपरेचा सर्वांगीण आढावा घेणे क्रमप्राप्त ठरते. मुळात, निसर्गतः समान असणाऱ्या स्त्री अथवा कोणत्याही लिंग भावना असणाऱ्या व्यक्ती समूहास केवळ भोगवस्तू समजून त्याच्यावर केलेला अत्याचार हा केवळ त्या संबंधित गुन्हेगार व त्याची प्रवृत्ती इतक्यापुरताच मर्यादित नसून त्याची अनेकांगी कारणे आपणास समजून घ्यावी लागतील.

भारतीय संस्कृती सर्वार्थाने विशिष्ट वर्ण, जाती, वर्ग, पुरुषसत्ताक लिंग समूहाच्या वर्चस्वाखाली निर्माण झाल्याचे वास्तव आहे. अर्थातच या समाज व्यवस्थेमध्ये इतर उपेक्षित लिंग समूह, दलित, बहुजन, आदिवासी, अन्य अल्पसंख्यांक धर्म समूह आदींना कोणत्याही प्रकारचे स्थान नाकारण्यात आले. त्यातूनच प्रस्थापित समाजाच्या अथवा देशाच्या आवश्यकता पूर्ती साठी वापर करण्यात आल्याचा इतिहास आपणास नाकारता येणार नाही. त्यातूनच हा उपेक्षित समूह केवळ गुलाम असल्याचा विचार स्वार्थासाठी निर्माण करण्यात आला. आजही समाजाची ही मानसिकता बदलली असे आपणास वारंवार अधोरेखित होणाऱ्या उदाहरणांवरून म्हणता येणार नाही. कारण,  ज्या समाज व्यवस्थेवर मिथ्या धर्म आणि अविवेकी तत्वज्ञानाचा प्रभाव असतो त्या समाज व्यवस्थेमध्ये अन्याय, अत्याचार आणि शोषण हे गुलामांना अधिकाधिक गुलाम बनवण्याचे निरंतर प्रयोग असतात. त्यातूनच विवेकी समूहातही दहशत निर्माण करणे हे ही यामागचे एक धोरण असते.

समकलात होत असलेले अत्याचार आणि त्यामागजी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, मानसिक पार्श्वभूमी ज्ञात असतानाही त्या शोषणवादी व्यवस्थेला प्रोत्साहन देणाऱ्या सणोत्सव, परंपरा, तत्वज्ञान, भाषिक वा अन्य प्रतिकांचे लांगुलचलन करणे म्हणजे शुद्ध स्वहत्या करण्यासारखे आहे. जो विवेकी मानव समूह शोषणाच्या विरोधात असल्याची भाषा बोलतो त्या समुदायाने धर्म वा तदानुषंगिक शोषणवादी प्रतीके सर्वार्थाने झुगारून दिली पाहिजेत. तेव्हाच खऱ्या अर्थाने अन्याय अत्याचार निवारणाची आणि सामाजिक क्रांतीच्या माध्यमातून समतामूलक समाज निर्माण होण्याची प्रक्रिया द्रुत गतीने निर्माण होईल. समतेचा हा संगर केवळ ‘हॅशटॅग’ च्या माध्यमातून सोशल मीडियावरच नाही तर जमिनीवरच्या ‘सोशल लाईफ’मधेही पुरोगामी कृतिशीलतेच्या माध्यमातून व्यक्त व्हावा. त्यातूनच कदाचित नवा समाज प्रत्यक्षात उतरेल.     

Saturday 6 October 2018

संदीप भाई का जाना निश्चित ही एक क्षती है...
'टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था, मुंबई' के शोधार्थी संदीप जेधे का देहांत




मुंबई स्थित 'टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था' के शोधार्थी, हमारे बडे भाई संदीप जेधे का आज दिनांक ६ ऑक्टोबर २०१८ को अचानक बीच मे ही चले जाना निश्चित ही हमारे अंबेडकरवादी दलित - बहुजन छात्र आंदोलन की क्षती है. कुछ ही महिने पहले उनके पिता का देहांत हुवा था. घर मी उनकी माँ और एक छोटी बहन है.


संदीप गत अनेक सालो से 'अंबेडकराईट स्टुडंट्स असोसिएशन' के साथ जुडे हुवे थे. एक विद्यार्थी होने के नाते संघटन तथा वैचारिक मतभेदो के बीच भी अन्य सभी से उनका स्नेह कम न हुवा. वे हमेशा ही सभी को साथ लेकर काम करने की बात करते. नये विद्यार्थी मित्र निश्चित ही इस के गवाह है की, किसीं भी परिप्रेक्ष से आया हुवा छात्र वे अपना समझते थे. मेरा उनका पहला परिचय २०१७ के जून के महिने मे 'ऍडमिशन' के पहले ही दिन ‘टिस' मे हो गया था. जब वे 'अंबेडकराईट स्टुडंट्स असोसिएशन' के अन्य मित्रो के साथ ‘ऍडमिनिस्ट्रेशन ऑफिस’ मे नये छात्रो को हमारे ‘इन्स्टिट्यूट’ द्वारा ‘फिज’ जमा कराने के आदेश का संवैधानिक विरोध कर रहे थे. बाद मे बात हुई, और 'जय भीम' हमारी बात की शुरुवात. अभिव्यक्ती और ऊर्जा का प्रेरणा स्रोत क्रांतिकारी घोषणा 'जय भीम' उनके अंत तक हमारे स्नेह का प्रतीक था.  

कल परसो उनकी मुलाकात चेंबूर मे हुई. हम जरा ऑखे ‘चेक’ कराने डॉक्टर के पास गये थे. बीच में रास्ता भूल गये. कुछ देर बाद संदीप भाई भी वहा पहूचे और हमसे बात की. अच्छा लगा.

वे हमेशा जमीन से जुडे हुवे इंसान थे. समाज के अंतिम तबके से आये हम सभी मित्र उनका वह जुडाव हमेशा ही महसुस करते. वे चाहते थे की, हम सभी हमारा दायित्व निभाये और बाबासाहब से प्रामाणिक रहे. वे सच्चे थे.

आज उनके जाने की खबर हम सभी को एक सदमा है. उन्हे आखरी बार देखने जब हम ‘हॉस्पिटल’ गये, हमने वहा छात्रो का उमडा हुआ हुजुम पाया. एक कभी भी विश्वास न रख पाने वाली खबर उन सभी को खिच लाई थी. जीसमे सभी विचारधारा और वर्ग के छात्र थे. वह खामोशी उस हानी को दर्शाती थी, जो एक युवा अंबेडकरवादी के आंदोलन बीच मे ही छोड जाने से हुयी थी. जो ‘टाटा इन्स्टिट्यूट’ के छात्र राजनीती मे शायद ही कभी भर सके.