Friday 21 June 2019



कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को एक अम्बेडकरवादी पत्र

  



दिनांक १९ जून २०१९,
हैदराबाद, तेलंगना.

. राहुल गांधी जी,
अध्यक्ष, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस,   
सप्रेम जय भीम तथा नमस्कार,

      सर्वप्रथम आज आपके जन्म दिवस के अवसर पर शुभकामनाएं देते हुवे अत्यंत आनंद के साथ आपके मंगल की कामना करता हू. लोकसभा चुनाव के पहले 'अपनी बात, राहुल के साथ' इस उपक्रम के दरम्यान आपसे व्यक्तिगत मुलाक़ात करने का मोका मिला. निश्चित तौर पर आपकी सादगी, इंसानियत और समाज के सबसे निचले तबके के प्रति आपकी आपनत्व की भावना ने मुझे एक छात्र के रूप में प्रभावित किया.

      सर, समकालीन परिपेक्ष में देश जहां लगभग सभी क्षेत्रो में अत्यंत नकारात्मकता की स्थिति से गुजर रहा है वहि दलित, बहुजन, आदिवासी, अल्पसंख्यांक समाज का बढ़ता शोषण और उनके संविधानिक अधिकारों पर होता व्यवस्थात्मक और कट्टरवादी अतिक्रमण घोर चिंता का विषय है. मात्र, नि:संशय हमारे महान आदर्श डॉ. बाबासाहब अंबेडकर जी ने हमें संविधानिक तथा शांततापूर्ण मार्ग से संघर्ष करने का उपदेश किया है. अर्थात, हमारी गलतियों से सिखते हुवे और मानवता के प्रति जवाबदेह होते हुवे हमें आगे बढ़ना होगा. हमारे महान भारत की विरासत को देखते हुवे किसी भी एक संकुचित तथा शोषणवादी धर्म, जाती, समाज, संस्था, व्यक्ति या विचारधारा के नकारात्मक कट्टरता से परे हट सकल समाज के विकास की बात स्वातंत्र्य, समता, न्याय, बंधुता की चौखट पर प्रतिष्ठापित उपयोजनकारक कार्यक्रम के माध्यम से करनी होगी.

      हो सकता है, कोई भी अपयश की स्थिति हमारा विश्वास गिराने में सफल हो मात्र हमारा संघर्ष अंतिमतः मानवता के हित में है. मै आशा करता हू की, देश के सकारात्मक भवितव्य तथा समाज के शोषित दलित, उपेक्षित बहुजन, वंचित आदिवासी, तथा अन्य अल्पसंख्यांक वर्ग के पुनरोत्थान के लिए निजी स्वार्थ से परे हट हम सभी एक हो जाए. आशा है फिर मिलेंगे. पुन: जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाए. जय भीम. आभार.


आपका
कुणाल रामटेके,
ramtekekunal91@gmail.com   


      

Wednesday 19 June 2019

क्या 'जय श्री राम' की राजनीति का उत्तर 
'जय भीम' का नारा है ?
भारतीय संसद के नकारात्मक धार्मिकीकरण पर एक चिंतन   


शपथ ग्रहण के दरम्यान असदुद्दीन ओवेसी (एमआईएम)

      भारतीय जनमानस पर कथित धर्म और उनके आदर्शोने नि:संशय रूप से अपनी अमिट छाप छोड़ी है. केवल किसी एक व्यक्ति, संस्था, समाज एवं प्रदेश ही नहीं बल्कि भारत के समस्त लोकजीवन को बदलने वाली राजनीति धर्माधिष्ठित है. सन नब्बे के दशक में देश में उभरे राम मंदिर आन्दोलन से देश में निर्मित वातावरण को समकालीन वास्तविकता में भी महसूस किया जा सकता है. क्या राम नाम की राजनीति ही इस देश का भवितव्य है ? नि:संशय भारत जैसे बहुलतावादी देश में कोई भी एक धर्मीय राजनीति सर्वांगीन कटुता को जन्म देने में कारीगर साबित होगी. मात्र, क्या धर्मवादी राजनीति का कोई पर्याय हो सकता है ? अर्थात जरुर हो सकता है.

      खैर, मूलतः देखे तो केवल हमारे देश में कानूनी तौर पर तो जाती-धर्म के नाम पर 'वोट' नहीं मांगे जा सकते. लेकिन हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव को देखे तो अनेक पार्टीयों के नेताओं को इसका धड़ल्ले से उलंघन करता पाया गया. यही नहीं बल्कि लोकसभा चुनाव के पश्चात सांसदों के शपथग्रहण समारोह में भी इस तरिके की नारेबाजी जोर शोर से चलती रही. इसी बिच देखने को मिले एक वाकिये ने सबका ध्यान अपनी और आकर्षित किया है. जो की निश्चित ही अधोरेखित करने लायक है. किस्सा यह था की, देश में मुस्लिम अल्पसंख्यांक समाज की राजनीति का चेहरा समझे जाने वाले 'मजलिस--इत्तिहादुल मुसल्लमिन' के नेता असदुद्दीन ओवेसी, जैसे ही संसद में शपथ ग्रहण के लिए उठे वैसे ही कुछ सांसदों ने 'वन्दे मातरम्' और 'जय श्री राम' के नारे लगाना शुरू किया. इसी बिच ओवेसी जी उपरोधकता से इशारों में ही ज़रा और जोर से नारे लगाने को कहते रहे. नारे चलते रहे और शपथ भी. मात्र, अपने शपथग्रहण समाप्ति के उपरांत ओवेसी जी ने जो 'जय भीम' का नारा बुलंद किया वह भी उल्लेखनीय है. किन्तु क्या केवल सर्वसामान्य दृष्टिकोण से इस घटना को देखा जा सकता है ? और क्या देखा जाना चाहिए ?

      मूलतः भारतीय संविधान के अनुच्छेद ९९ में 'संसद के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले  राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा' यह नवनिर्वाचित सांसदों के शपथ ग्रहण के लिए निर्देशित है. संविधान का संबंधित अनुच्छेद तथा तीसरी अनुसूची में निर्देशित शपथ का प्रारूप अत्यंत महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रक्रिया को अधोरेखित करता है.

     
सामान्यतः, संसदीय मर्यादा तथा गांभीर्य का पालन करते हुवे निसंशय सांसदों को आपने विवेक को उजागर रखना चाहिए. मात्र लोकतंत्र का सर्वोच्य अधिष्ठान कहे जाने वाले संसद सभागार में अगर 'जय श्री राम' की नारे लगने लगे तो मूलतः सामजिक विकास और स्तरीय ढाचे में सबसे निचे नरंतर वंचितता और पिछड़ेपन के साथ ही नकार और वृथा संशय का शिकार होता दलित, बहुजन, आदिवासी, मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यांक समाज किस जगह अपनी गुहार लगाए ? और कोनसी शासकीय प्रणाली पर अपना विशवास रखे ? भारतीय राज्यघटना जहा ऐसे दबे-कुचले समुदाय को स्वातंत्र्य, समता, न्याय और बंधुता का अधिकार देती हो वही धर्म विशेष की थोती राजनीति उन्ही संविधानिक मूल्यों को ध्वस्त करने में साबित ना हो.

      निसंशय, संसद में गूंजे 'जय श्री राम' के नारे जहा देश भर के दलित, बहुजन, आदिवासी और अल्पसंख्यांक तबके में नकारात्मकता का भाव पैदा करेंगे वहि उसी वक्त 'जय भीम' का नारा संविधान के मार्ग पर चलने को प्रोत्साहित करता रहेगा. लेकिन नारों के बदले नारों की राजनीति जबतक सकल समाज के विकास की कांक्षा में नहीं बदलती तब तक देश के संविधानकर्ताओं का सपना साकार हुवा ऐसा हमें नहीं मानना चाहिए.

      अर्थात जब भी आप और हम 'जय भीम' का नारा लागाते है, तब आत्यंतिक नैसर्गिक रूप से शोषणाधिष्टित धर्म और उसका थोता तत्वज्ञान और उसके द्वारा बनाई हुई अनैसर्गिक समाजरचना के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर उजागर करते है. अर्थात इस नारे के बाद हमें अन्य किसी नारे तथा घोषणापत्र देने की जरुरत नहीं. लेकिन नि:संशय नारे भी जहा हमारी राजनीति है वहि राजनीति केवल नारों तक सिमित रहे.  


प्रकाशित - 'दलित दस्तक' : https://www.dalitdastak.com/is-jai-shri-ram-the-answer-to-politics-jai-bhim-slogan/