Tuesday 25 September 2018

अंबेडकरवादी समाज निर्माण के संदर्भ मे एक अपील
ऐतिहासिक आंबेडकरवादी दलित - बहुजन छात्र आंदोलन 
की भूमिका : आलोचना एवं पर्याय

डॉ. बाबासाहब अंबेडकर

ऐतिहासिक अंबेडकरवादी दलित-बहुजन छात्र आंदोलन की भूमिका: आलोचना एवं पर्याय
समतामुलक समाज निर्माण के संदर्भ मे छात्र आंदोलन से एक अपील
मैं सुझाव में आपके सम्मुख इन अंतिम शब्दों को रखता हूँ- शिक्षित बनो, आन्दोलन करो और संगठित हो, स्वयं पर विश्वास रखो व् उम्मीद कभी मत छोड़ो. चूँकि न्याय हमारे पक्ष में है, तो नहीं लगता कि इस लड़ाई को हार जाने का कोई कारण हो सकता है. लड़ाई तो मेरे लिए ख़ुशी की बात है. यह लड़ाई तो पूर्णतम अर्थ में आध्यात्मिक है. इसमें कुछ भी भौतिक या सामाजिक नहीं है. क्योंकि हमारी लड़ाई धन-दौलत व् सत्ता की नहीं है, यह तो आज़ादी की लड़ाई है. यह तो मानव व्यक्तित्व के पुनर्दावे की लड़ाई है.
[“My final words of advice to you are Educate, Agitate and Organize; have faith in yourself. With justice on our side I do not see how we can lose our battle. The battle to me is a matter of joy. The battle is in the fullest sense spiritual. There is nothing material or social in it. For ours is a battle not for wealth or for power. It is a battle for freedom. It is a battle for the reclamation of the human personality.” – Dr. B. R. Ambedkar (Bombay : Popular Prakashan, 3rd ed. 1971, p: 351)]
समग्र भारतीय जाति/वर्ण/वर्ग/धर्म/लिंग भेद तथा शोषणाधिष्टित व्यवस्था के विरुद्ध ज्ञानमीमांसात्मक प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद करती ‘फुले-शाहू-अंबेडकरवादी’ विचारधारा दबे-कुचले, दलित, शोषित एवं वंचित समाज की मूलगामी अभिव्यक्ती तथा सर्वांगीण शाश्वत विकास के लिये सार्वत्रिक सकारात्मक तथा सर्वसमावेशकता का मार्ग प्रशस्त करती है. भारतीय संविधान के सकारात्मक उपयोजन के माध्यम से आज जहाँ सकल आधुनिकतावादी, समतावादी समाज 'नवं भारत' का सपना बुन रहा है, वहीँ सार्वत्रिक समता, सामाजिक आर्थिक न्याय, लिंगभेद रहित जीवन, तथा स्वातंत्र्य के उपयोजन का आग्रह भी जनमानस में है.
मात्र, समकालीन परिदृश्य में बढते सामाजिक - आर्थिक गैरबरबारी, राजनैतिक प्रतिनिधित्व के मामले मे बढाया गया ‘चमचायुग’ तथा धार्मिक कट्टरता के अवरोधों के बीच जहाँ समतावादी महापुरुषों का विचार अवलंबन से दूर नज़र आता है, वहीँ इनके नामपर केवल राजनैतिक रोटियाँ सेकने की अवसरवादी मानसिकता अत्याधिक घातक साबित हो रही है. इसी बीच उच्च मानवीय मूल्य, सामाजिक न्याय एवं समता के बुनियादी सिद्धांतों का अवमूल्यन तथा समाज पर सदैव थोपी जा रही एक धर्मीय आचार पद्धती नकारात्मक वातावरण निर्मिती में कारगर साबित हो रही है. देश भर में जहा विशिष्ट संकुचित राष्ट्रवाद हावी होता जा रहा है वहीँ दलित, आदिवासी, बहुजन, अल्पसंख्यक समाज पर बढ़ते अन्याय अत्याचार की खबरों ने विषमतावादी तत्वों के द्वारा प्रतिगामी व्यवस्था निर्माण के दावों को मजबूती प्रदान की है. इसी संकुचित राष्ट्रवादी तत्वों में समाज का उपेक्षित तबका आज स्वयं के ही राष्ट्र में 'राष्ट्र विहीन' होता दिखाई देता है. इन सभी नकारात्मक क्रियाकलापों के बीच समकालीन समस्याओं का उत्तर हमें अंबेडकरवादी विचारधारा के सार्वत्रिक तथा सर्वसमावेशक उपयोजन में दिखाई देता है. इस आत्यंतिक मानवतावादी एवं हितकारी तत्वज्ञान के अवलंबन की जवाबदेही आज समूचे ‘प्रोग्रेसिव्ह’ तथा समता का विचार माननेवाले हम सभी की है.
आज देश और दुनिया के भयग्रस्त वातावरण में जहा हम बदलाव की बात करते हैं, वहीँ बाबासाहब अंबेडकर जैसे महापुरुषों के बुनियादी सिद्धांतों एवं विचारों का हो रहा गैर इस्तेमाल, उसका अवसरवादी सैद्धान्तिकीकरण तथा उन सामाजिक क्रांतिकारी विचारों का कुछ संकुचित तबकों द्वारा किया जानेवाला अत्याधिक पंथीयकरण समाज के लिए पूर्णतः घातक तथा निषेधार्य है. इसी बीच स्वार्थी एवं मूर्खतापूर्ण ढंग से स्वयं के हितसंबन्धों की मजबूती को ध्यान में रखकर कुछ लोग एव संगठन इन महापुरुषों के नाम का केवल इस्तेमाल कर इन तथाकथित अंबेडकरवादीयों के संकुचित निजी स्वार्थ के आड़े आने वाले एवं उनके गैर अंबेडकरवादी कृति को उजागर करते लोगों के ऊपर अंबेडकरद्रोही, कम्युनिस्ट, संघी, हिंदुत्ववादी होने के फर्जी प्रमाणपत्र देने की कृति का, एक हृदय से ऐसी सोच का हम सभी अम्बेडकरवादीयों को पुरजोर विरोध करना चाहिए. फुले-शाहू-अम्बेडकर किसी एक समाज तथा जाति की क़तई विरासत नहीं हो सकते. अपितु जो व्यक्ति तथा सामाज, इन महापुरुषों के विचारों को विवेकशीलता के पायदान पर लागू करने का प्रयास अपने निजी एवं सार्वजनिक जीवन में करता है वे उन सब के हैं.
अर्थात, किसी एक समाज के अंबेडकरवादी तथा अन्य समतावादी पक्षधर महापुरुषों पर कथित एकाधिकार को नकारते हुये हमें समाज की सभी जातियाँ, सभी लैंगिक संघ, शोषित, वंचित, दलित, आदिवासी, पीड़ित, बुद्धिजीवी, श्रमजीवी, विद्यार्थी आदि सभी की एकजुटता प्रस्थापित कर सामाजिक क्रांति का आगाज़ करना होगा.  
अर्थात, यह जवाबदेही सबसे ज्यादा उनकी है जिन्होंने अंबेडकरवादी होने का दावा किया है. विवेक के माध्यम से तथा परिप्रेक्ष को देख कर हमें 'लॉन्ग टर्म' नीति को ध्यान में रखकर अंबेडकरवाद का प्रचार एव प्रसार पर ध्यान देना चाहिए.  तथा सभी के विचारों का आदर करना चाहिए. अर्थात किसी भी अंबेडकरवादी सिद्धांतों को, बिना किसी नकारात्मक छेड़खानी के हम जरूर यह कर सकते है.
किसी भी तरह के सकारात्मक परिवर्तन के लिए बाबासाहब अंबेडकर ने 'शिक्षा' के महत्त्व को उजागर किया है. उनके द्वारा महाराष्ट्र के नागपुर शहर में दिनांक 18-19 जुलाई 1942 में आयोजित 'ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस कॉन्फ्रेंस' में दिया गया 'पढ़ो, संघर्ष करो, संगठित हो' का ऐतिहासिक नारा आज हमारे प्रतिरोध का मूलमंत्र है. अतः दलित बहुजन समाज का कुछ तबका भारतीय संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के माध्यम से पढ़ा और उच्च स्थान ग्रहण करने में लग गया. मात्र, प्रस्थापितत्व की ओर झुकते इस तबके ने बाबासाहब के अन्य सिद्धांत एवं सन्देश को भूलाकर स्वार्थ में लिप्त हो 'पे बॅक टू सोसायटी' के विज़न से दूर चला गया. आज हमें मूलभूत अंबेडकरवाद के उपयोजन पर ध्यान देना होगा.
आज का दलित बहुजन आंदोलन एवं राजकारण जहाँ व्यक्ति तथा अवसरवादी क्रियाकलापों में लिप्त हैं, वहीँ जब तक हमारे आंदोलन तथा संगठन संकुचितता से दूर नहीं होते, तब तक हम समता के उद्देश्य से हम कोसों दूर चले जायेंगे.  
छात्र आंदोलन तथा अंबेडकरवाद
भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने सामाजिक उत्थान में विद्यार्थी वर्ग की भूमिका पर जोर देते हुये, उन्हें अपने एव अपने सामाजिक अधिकारों की रक्षा हेतु उच्च शिक्षा पर लक्ष केंद्रित करने को कहा है. मात्र, आज के दौर में जहा देश के शैक्षणिक संस्थान नवब्राह्मणवादी, जाति/वर्गवादी सत्ता के पैरों तले अपने आदर्शों को कुचलने पर मजबूर हैं वहीँ अगर एक छात्र होने के नाते अपनी शिक्षा के साथ ही इन संस्थानों के आदर्शों की रक्षा भी हमारा कर्तव्य है. अर्थात, संवैधानिक, शांतिपूर्ण ढंग से 'पढ़ाई और लड़ाई' हमें मजबूती से करनी होगी.
नि:संशय, हमारे पास हमेशा से रही संसाधनों की कमी हमारे विद्यार्थी जीवन को ऐतिहासिक रूप से प्रभावित करती है. मात्र,  अगर हम व्यवस्था के शोषण के खिलाफ प्रतिक्रियाहिन रहें तो आनेवाले समय में हमारे अन्य छात्र शिक्षा के मूलभूत अधिकार से ही वंचित होंगे और इसमें केवल प्रतिक्रिया व्यक्त कर राजनैतिक ही नहीं बल्कि नैतिक रूप से भी हमें सामाजिक दायित्व को स्वीकार करना होगा.
देश भर में चलते आंदोलन जहाँ हमारा लोकतंत्र मजबूत होने का उदहारण प्रस्तुत करते हैं, वहीँ हमारा इन आंदोलनों के प्रति उदासीन रहना देश में नकारात्मक सन्देश देता है. मात्र, इसका मतलब यह नहीं कि हम भी भीड़ का हिस्सा हो जाएँ. हमारा मार्ग सत्य, शांति, सौहार्द एवं संविधान का है.    
टाटा सामजिक विज्ञानं संस्था के छात्र आंदोलन के परिप्रेक्ष में
केवल एक व्यक्ति, संस्था, समाज एवं संगठन की नकारात्मक छवि पेश कर हमारी कथित महानता को उजागर करना हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिये. बल्कि हमें हमारे विचार, तत्वज्ञान, आदर्श, कृति कार्यक्रम की सकारात्मक तथा वास्तविक आलोचना कर समयोचित विवेकवादी तथा सर्वसमावेशक सर्वहितकारी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए. केवल ‘अंबेडकराईट’ नाम देने से हमारा संगठन अंबेडकरवादी सिद्ध नहीं होता. उसके लिए सर्वसमावेशक कार्यक्रम हमें लागू करना होगा. संगठन में एक जाति विशेष की अत्याधिक निर्णयात्मक भूमिका संगठन की व्यापकता को संकुचित करती है. क्या एक अंबेडकरवादी संगठन होने के नाते हम इस विचार को माननेवाले एवं इन विचारों पर चलने वाले व्यक्ति/समूह को अपने साथ नहीं जोड़ सकते? नि:संशय, ऐसा हो सकता है. जरुरत है हमारे विचारों को विस्तृत करने की. हमारा अंबेडकरवादी कहलाने वाला संगठन यदि संस्थात्मक तथा राष्ट्रिय स्तर पर केवल एक जाति समूह के हितों की रक्षा का दावा करे तो यह हमारे बुनियादी सिद्धांतों के ही विरूद्ध होगा.
हमारे महान आदर्श डॉ. बाबासाहब आंबेडकर द्वारा दिनांक 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए ऐतिहासिक संबोधन में उन्होंने "आज हम एक विसंगत विश्व में प्रवेश कर रहे है. एक और जहाँ राजनैतिक समता प्रस्थापित हो रही है वहीँ दुसरी और सामाजिक विषमता अस्तित्व में है. इस समय में यह संविधान अच्छे ढंग से लागू नहीं किया गया तो संविधान का यह ढांचा नष्ट हो कर रह जाएगा" यह बात कही थी. अर्थात् उनका यह विधान आज के 'कैम्पस पॉलिटिक्स' में कार्यरत हमारे संगठन पर भी लागू होता है. क्या भारतीय संवैधानिक अधिकार एव दायित्वों की बात करने वाला हमारा संगठन हमारे ही संगठन के संविधान को सही मायनों में लागू कराने की इच्छा रखता है? इस विषय में अनेक चर्चा एवं निवेदनों के बावजूद भी न आता बदलाव हमें आलोचना पर मजबूर कर नवनिर्माण को प्रेरित करता है. अगर हमारा छात्र संघटनात्मक संविधान सर्वसमावेशी कार्यक्रम को लागू कराने में अक्षम है, तो बदलाव की बात करना ही बेहतर होगा.  
संगठन के मामले केवल दो-चार लोग मिलकर निर्णय नहीं ले सकते. अर्थात, यह हमारे बुनियादी लोकतंत्र के विरुद्ध होगा/होता है. ऐसी अवस्था में संगठनात्मक लोकतंत्र मजबूत करने तथा उसके उपयोजन पर जोर देने का प्रयास आज महत्वपूर्ण है.
प्रातिनिधिक जनतंत्र में विश्वास रखने वाले हमारे छात्र संगठन द्वारा निर्वाचित हमारे छात्र प्रतिनिधि अंत में केवल कुछ लोगों के हाथ की कठपुतलियाँ भर साबित होती हैं. अपितु, संगठन की मेहनत से चुनाव जीतने वाले छात्र प्रतिनिधि का संगठनात्मक कार्य के प्रति जवाबदेही और भी बढ़ जाती है. ऐसे में संगठन के निर्णय के बावजूद भी यह प्रतिनिधि एकल निर्णय पद्धति से लोकतंत्र एव संगठन को ध्वस्त करने का काम करते हैं. और आश्चर्य की बात यह है कि, संगठन के ही तथाकथित बड़े लोग उनके पक्षधर होते हैं. क्या संगठन के लिए यह अच्छा है?
जवाबदेही के निर्वहन के बारे में भी हमको सजग रहते हुए कुछ मूलगामी कदम उठाने होंगे. हमारा संगठन कोई बिना सर की मुर्गी नहीं जो अस्तित्वहीनता की खाई में कूद पड़े. हम यह चाहते है कि संगठन के निर्णय, यश - अपयश आदि सब की जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाये.
किसी भी संगठन में विविध मत प्रदर्शन को मुक्त स्वतंत्र प्रदान किया जाना तथा उन सकारात्मक विचारों का स्वागत करना महत्वपूर्ण होता है. इस बीच व्यक्तिगत मतभेद तथा मुद्दे दूर रख संगठन के हित के बारे में विचार होना जरुरी है. मात्र, अन्य सदस्यों को भिन्न विचार होने पर तत्काल अंबेडकरद्रोही सिद्ध करने की होड़ में लग जाना संगठन के सामूहिक विवेक पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है.
'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' की राजनीति
आज के दौर में हावी होती आत्यंतिक जाति/धर्म/वर्ग/लिंग/ भेदवादी ताकतें सत्ता के माध्यम से वही प्रतिगामी व्यवस्था लागू कराने में लगी हुई है. इसी बीच केवल एक व्यक्ति, जाति, संगठन, पार्टी, प्रदेश आदि के दम पर हम हमारे ऐतिहासिक प्रतिरोधी संघर्ष में कामयाब नहीं हो सकते. अर्थात, हमारा संघर्ष किसी भी प्रकार के सत्ता या संपत्ति के लिए नहीं बल्कि मानवीयता के उत्थान के लिए है. इसी कारण संघर्ष में जय-पराजय की अवास्तविक चिंता किये बगैर हमें हमारा आंदोलन चलाना होगा. इस समतावादी संघर्ष में हमें उन सभी ताकतों को एकजुट बनाना होगा जो दलित, शोषित, वंचित समाज के हित में उक्ति एवं कृति के माध्यम से एक है. ऐसे 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' के माध्यम से देश की सभी अंबेडकरवादी, धर्मनिरपेक्ष, समतावादी ताकतें एक होकर शोषितों के पक्ष में संघर्ष करे. अर्थात, इस का मतलब यह नहीं कि हम हमारी आवाज विलीन कर दें.

हम आशा करते हैं कि, आज की समस्याओं को ध्यान मे रखकर, हमारे जय एवं पराजय से सीखकर आंबेडकरवादी विचारधारा पर चलने वाले समतामूलक समाज के निर्माण में हम सभी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायें. जय भीम!

('आंबेडकराईट स्टडी सर्कल, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था, मुंबई' के ‘अजेंडा’ निर्माण हेतू लिखा गया आधिकारीक आलेख.)  
 
दिनांक : २५ सितंबर २०१८,
टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था, मुंबई.


पूर्वप्रकाशित -
राउंड टेबल इंडिया (दिनांक १२ दिसंबर २०१८)
http://hindi.roundtableindia.co.in/index.php/features/8921-ऐतिहासिक-अंबेडकरवादी-दलित-बहुजन-छात्र-आंदोलन-की-भूमिका-आलोचना-एवं-पर्याय


Sunday 23 September 2018

Remembering Jyotirao Phule on the day he found the Satyashodhak Samaj


On 24 september 1873, Mahatma Phule had founded a progressive revolutionary organisation called Satyashodhak Samaj. Phule had also organised the 2nd coronation festival of Chhatrapati Shivaji Maharaj on this date. For the establishment of an egalitarian society, Phule accepted Shivaji as a role model. Through the medium of Satyashodhak Samaj, Phule has done a great epistemological work for the establishment of a scientific progressive society. His great vision is a milestone in the Bahujan movement of Maharashtra. Phule is a father of modern India and his great vision is an inspiration for all of us. His work and thoughts show an appropriate path and give answers to the contemporary  situation which is fairly negative. Satyashodhak Samaj as well as Phule can be called the mother of the movement for human rights, social justice and equality. This organization and Phule himself have been instrumental in changing the course of the socio-political environment. I pay my regards and gratitude to revolutionary work of Mahatma Jotirao Phule and Satyashodhak Samaj.




Govind Prabhu 
The Path For An Egalitarian Society


Govind Prabhu

        For the fulfillment of a great dream of an egalitarian society, Govind Prabhu had chosen the path of anti caste, class and gender based discriminatory movement with perspective from within. In the age of the 11th century his revolutionary work was a milestone for Mahanubhav movement in Maharashtra. His great thoughts on social justice and equality are a remarkable model for society. As a great preceptor of Sarvagya Shree Chakradhara his teachings are giving inspiration to all of us.
     
          Today, on the occasion of his birth anniversary, I wish to pay my regards to his historical and progressive work. Dandavat. 



- From My Facebook Post : Date 22 September 2018
मुर्दाबाद के नारो के बीच संविधान और आंबेडकर  


दिल्ली में संविधान जलाते 'आझाद सेना' के कार्यकर्ता

          समकालीन परिपेक्ष मे घटित होने वाली निराशाजनक घटनाये निश्चित ही चिंता का विषय है. भारतीय लोकतंत्र जहा हम सभी को अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता प्रदान करता है वही बुनियादी अधिकरो के साथ कुछ कर्तव्य भी निर्धारित करता है. भारतीय जनता को स्वतंत्र्य, समता, न्याय और बंधुता के उपयोजन का आश्वासन देने वाले सर्वोच्च ग्रंथ संविधान हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था कि निव है. सभी प्रकार की विषमता मूलक रचना नष्ट कर संविधान के माध्यम से डॉ. आंबेडकर जैसे महापुरुषोने नवं समाज के निर्माण हेतू प्रयास किया था. मात्र, लोकतंत्र को नकार देने वाले और जाती, धर्म, लिंगभेद आधारित समाज की रचना को लागू कराने के अत्त्याग्रही सनातनवादी मानसिकता के वाहक तत्व संविधान को ही जलाकर देश मे दहशत का वातावरण निर्माण करना चाहते है. 

          ऑगस्ट क्रांती दिवस के अवसर पर तथाकथित 'आझाद सेना' द्वारा आरक्षण के विरोध मे आंदोलन चलाया गया. इसी बीच हमारे संविधान के मुख्य शिल्पी डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मुर्दाबाद नारो के बीच भारतीय संविधान को भी जला दिया गया. यह घटना देश के किसी छूटे हुवे कोने मे नही बल्की राजधानी दिल्ली के 'संसद मार्ग' पर पुलीस की मौजुदगी मे हुई. इसी बीच इस संविधान विरोधी तबके ने देश के 'एस. सी. / एस. टी.' समुदाय के विरोध मे भी नारे लगाये. 

       आज देश जहा आने वाले १५ अगस्त को आजादी के ७० साल के महोत्सव को मनाने जा रहा है वही इस घटना ने समुची लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने बृहद प्रश्न चिन्ह खडा कर दिया है. क्या इस तबके कि यह कृती केवल 'भारतीय संविधान' नामक कागजी दस्तऐवज जलाने भर ही सीमित है ? क्या आंबेडकर मुर्दाबाद के नारे केवल एक व्यक्ती विरोध है ? क्या एस. सी. / एस.टी. समुदाय के विरोध मे लगे नारे उस तबके की भावनात्मक कृती भर थी ? क्या यह सारा राष्ट्रद्रोही क्रियाकलाप केवल जन समूह की तात्कालिक क्रोध कृती थी ? यह और ऐसे कई प्रश्न आज हमारे दिल मे उठ रहे है. 

         इसी बीच, महाराष्ट्र के पूना और नालासोपारा मे तीन हिंदुत्ववादी दहशदगर्दो को बिस जिंदा बम और अन्य जानलेवा शस्त्रो के साथ गिरफ्तार किया गया. हिंदू राष्ट्र की घोषणा इस देश मे निश्चित ही नई नही है. लेकीन, इस घटना ने देश की व्यवस्था के विरोध मे अन्य बडी साजिशे चल रही होने की आशंका को हकीकत होने के तथ्य को भी मजबुती प्रदान की है. 


     क्या संविधान जलाया जाना, आधुनिक समतामुलक समाज के जनक डॉ. आंबेडकर के विरोध मे नारे प्रदर्शन, एस. सी. / एस. सी. समुदाय के विरोध मे नारेबाजी और तीन हिंदुत्ववादी दहशदगर्दो कि गिरफ्तारी इन सभी घटनावो के बीच कोई समान शृंखला है ? निश्चित ही बदलते दौर मे भी देश के हमेशा से दबाये गये बहुसंख्य दलित, पिछडे, आदिवासी, अल्पसंख्याक समाज को नकार कर मानवतावाद को अमान्य करने वाले तथाकथित धर्माधारीत राष्ट्र निर्माण कि दिशा मे उठाया गया यह एक कदम है. जीसके माध्यम से देश का माहोल और खराब कर दहशत का वातावरण निर्माण करना है. बाबासाहब ने " अगर एक व्यक्ती किसी व्यक्ती के खिलाप अपराध करता है, तो राज्य एवं न्यायपालिका उसे दंडीत कर सकती है, लेकिन एक समाज ही समाज के विरोध मे अपराध करता है तो क्या किया जाय ?" यह प्रश्न उपस्थित किया था. आज कानून एवं सुव्यवस्था के राज्य द्वारा दिये गये आश्वासन के बीच मे भी यह सवाल प्रासंगिक लगता है. इसी प्रश्न का उत्तर हमे विवेकाधिष्टीत समाज के रूप मे खोजना होगा. और निश्चित ही हमारी समझ, विवेक को बढाना होगा. 


        भारतीय स्वतंत्रता के दौर मे जहा 'भारत मे लोकतंत्र टिक ही नही सकता' के दावे दुनियभर के कथित विद्वान कर रहे थे वही आज हमारे देश ने दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र के रूप मे उभर कर विश्व के सामने अपना आदर्श प्रस्तुत किया है. इसका निःसंशय श्रेय हमारे संविधान को जाता है. जीसने हजारो सालो से चलती विषमता को नष्ट कर 'एकमय समाज' के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया. आज जरूरत है उसी लोकतंत्र को बचाने कि. संविधान को बचाने की. 

           और, रही बात महापुरुषो के विरोध कि, तो वह किसीं जाती बिरादरी के नही होते. वे सभी के है. माफ करे लेकिन आप सूरज पर थुक नही सकते. हो सकता है, आप महामानव को नष्ट करे, उनके पुतले भी गिराये लेकिन आप उनके विचारो को नष्ट नही कर सकते. आंबेडकर ने इस देश के मानविकरण की प्रक्रिया को गतिशील कर नवं समाज की निव रखी है. जीससे एक नही लाखो आंबेडकर का निर्माण होगा. निश्चित ही हमारा ऐतिहासिक संघर्ष जाती, वर्ग, धर्म, लिंग भेद आदी संकुचित कारक तत्त्वो के खिलाप और समता के पक्ष मे है. जो संविधान और आंबेडकर के मार्ग से चलता रहेग. जीसमे हम सभी एक है. संविधान जिंदाबाद, आंबेडकर जिंदाबाद. 



पूर्वप्रकाशित - 
वेलीवाड़ा, दिनांक ११ ऑगस्ट २०१८
http://velivada.com/2018/08/18/constitution-burning-india-ambedkar/

शून्यकाल, दिनांक १८ ऑगस्ट २०१८
http://shunyakal.com/the-constitution-and-ambedkar-between-the-slogans-of-murdabad/

Thursday 20 September 2018

Relevance Of Lord Chakradhara 

"Mahanubhav Dharma of Lord Chakradhar 
is a great example of humanity." - Dr. B. R. Ambedkar 


Sarvagya Shree Chakradhara

          Humanistic philosophy of Lord Chakradhara is a backbone of Indian social Revolution. He set a milestone of an ideal life for all social activities, thinkers, students, professors, workers of all sectors, women and others people. His holistic thinking and practice is a great symbol of fight against bramhinical hegemony, caste system, discrimination, atrocity against women, human injustice. He has given a great path as well as new epistemological model for humanity. As a father of Indian enlightenment movement after Budha, his work is most important in contemporary situation for social building in the way of progressive thoughts and thinking. 


HBDPeriyar140

E. V. Ramswami Periyar Naykar


        Periyar's great struggle against caste, class, gender based discrimination and bramhhanical hegemony gave a path of social reconstruction based on equality. He suggested a new epidemiological model which is not only important in the contemporary times but also necessary for the betterment of humanity.

          On the occasion of his 140th birth anniversary, I wish to pay my regards to his historical and progressive work. Jai Periyar, Jai Bhim... 



- From My Facebook post : 17 September 2018