चौराहा और संविधान
शोषण के हैं दबे राज जो चौराहे पर खोलेंगे,
कोई पूछे लाख बार तो 'संविधान' हम बोलेंगे //
जाने कितने लाल हमारे हमने खोए सीमा पर
किन्तु कपट से जीता राजा बिना लढ़े मैदानों पर
आखिर कितने दिन हम उनकी 'मन की बात' पर डोलेंगे
शोषण के हैं दबे राज जो चौराहे पर खोलेंगे //१//
जाती-धर्म के राष्ट्रवाद का बिज जिन्होंने बोया है
मंदिर-मस्जिद की राजनीति से देश का दिल भी रोया है
अब असली 'बटवारे' वालो को शान्ति से ही पेलेंगे
शोषण के हैं दबे राज जो चौराहे पर खोलेंगे //२//
रामराज का परचम लेकर, 'रथ' जिन्होंने जोता था
जब दिल्ली-बंबई दहल गई थी, भगवान तुम्हारा सोता था
साहबजी, अब रुको तनिक भी! प्यार का खेल खेलेंगे
शोषण के हैं दबे राज जो चौराहे पर खोलेंगे //३//
Copy Rights - Kunal Ramteke
कुनाल, भाई नये बरस पर क्या बरसा है तू....
ReplyDeleteथँक्स भाई, पहली बार ट्राय किया है....
DeleteVery nice composition, straight but subtle attack on today's social conditions..good going!
ReplyDeleteDear Ma'am, Thanks for the inspiration. trying 1st time.
ReplyDeleteSuperb poem...
ReplyDeleteGreat Kunal...nice words...each line is meaningful...waah nice poem...keep writing 👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻💐💐💐💐
ReplyDelete